Saturday, 15 April 2017

इकहत्तर साल का झोपड़ा / शैलेश सिंह

शैलेश सिंह 
क्या न कर गुजरता है इंसान अपनों के लिए , माथे का पसीना एड़ी तक पहुचते देर नहीं लगती। तपती धूप की अंगार हो या ठिठुरती ठण्ड की मार, या कानो से सन्न से गुजरती पानी की बौछार। हर दिन हर पल अपने बच्चों के लिए मेहनत करता राजाराम, जिसके पीछे उसकी तीन लडकिया और एक लड़का था , लुगाई भी थी , और एक भाई भी था, काम करनेवाला सिर्फ वही एक मात्र।पेट पालना दूभर हो गया था, और तब राजाराम ने निर्णय लिया की मैं अब गांव में मजदूरी नहीं करूँगा, मैं शहर जाऊंगा । और भाई भागीराम तुम गांव का काम संभालो।
आनन फानन में तैयारी होने लगी, और फिर राजाराम शहर चला गया,कुछ ही सालो में तरक्की होने लगी।

राजाराम गांव में पैसे भेजता और भागी राम उस पैसे का खेत ,घर ,समाज , और बच्चों की शादी भी करने लगा। इस बीच राजाराम गांव आता भी था तो शादी में पर कुछ दिन के लिए ही । जब गांव आता तो दूर खेत में अपने बचपन वाली झोपडी में रहता। उसका लड़का पूछता बबुआ आप यहाँ खेत में अपने इस पुराने झोपड़े में क्यों रहते हो। राजाराम के शब्दों में एक अलग ही बात थी, बेटा मुझे तेरे पक्के मकान का घर रास नहीं आता रे,, इसलिए मैं जितने दिन भी गांव रहता यही आकार सोता हूँ.


धीरे धीरे घरवालों को इस बात की आदत बन गयी थी। राजाराम जब भी आता झोपड़े में ही रहता।

अब काफी साल हो गए राजाराम का शरीर जवाब देने लगा था , वो हर बार गांव ये सोच कर आता की आखिरी बार है, पर घर आकर एक नया ही बखेड़ा शुरू हो जाता, अभी मंझली की शादी बाकी है अभी छोटी की शादी बाकी है और लड़के को कुँवारे मारोगे क्या, थोड़ा और जमा कर लो।

थक हार कर फिर वो शहर चला जाता।

अंततः जब गांववालों ने संमझाया की अब शहर मत भेजो राजाराम बूढ़ा हो गया है ,घर रखो और सेवा करो।। तब जाकर घरवाले माने,, कुछ दिन तक पक्के घर के एक कोने में रखा ,, फिर धीरे धीरे दूरिया बढ़ती गयी।
एक दिन उसके लड़के ने राजाराम से कहा, बबुआ ! तू काहे ना आपन खेतवा वाले झोपड़िया में रहता ।
खेतवो रखा जात ,, जानवर बहुत बढ़ गइल बाटे, राजाराम के सीने पर पहाड़ टूट पड़ा था ,, भाई कहता था, बीबी कहती थी ।। आज मेरा बेटा भी मुझे घर के बाहर देखना चाहता है!

बबुआ आखिर तूही त कहत रहला कि हम अपने बचपन वाली झोपड़िया के नाहीं छोड़ब, जब जब आवत रहला तब तब संवारत रहला वोकरा के... राजाराम के आँखों में आंसू थे उसके मुंह से जवाब नहीं निकला ,, पर उसकी आँखे बोल गयी ,, बचवा हम तुहरा के भी त बत्तीस साल से जोगवत बाटी,, अब इकहत्तर साल के राजाराम का दिन और रात उसी झोपडी में बीतने लगा , चारो तरफ भागी राम और बच्चे की किरकिरी होने लगी ,, पर वो सब अपने भोगविलासिता में मशगूल थे,


कभी खाना समय से मिलता तो कभी भूखे सोना पड़ता उस महान पुरुष को जिसने अपनी पूरी जवानी बच्चो के लिए कुर्बान कर दिया,, सूखे हुए आँखों में आंसू भी नहीं आते,,, एक दिन उनकी आत्मा उसी झोपडी में विलीन हो गयी ,, उसके मृत्यु की खबर घरवालों को दो दिन बाद मिली ,, और राजाराम सदा के लिए चला गया ,,, तब गांववालों ने निर्णय लिया कि राजाराम को इसी झोपड़ी में आग दिया जाय ,, और राजाराम अपने इकहत्तर साल के झोपडी के साथ मिटटी में दफ़न हो गया..!



शैलेश सिंह


( कहानी पूरी सत्य घटना पर आधारित) 


महागठबंधन/ डॉ. श्रीश


झूठ, बेईमानी, अनाचार आदि ने
साक्षर युग की ज़रूरतों को समझते हुए
किया महागठबंधन.
इन्होंने सारे सकारात्मक शब्दों की बुनावट को समझा
और तैयार किया सबका खूबसूरत चोला।
इन चोलों को पहन इन्होंने
फिर से शुरू की राजनीति।
नए चोलों ने क्या खूब कमाल किया
रोज ही नया धमाल करते
हैरान होने लगे सभी सकरात्मक शब्द,
उनकी पहचान का संकट हो गया
जितना ही वे अपनी पैरोकारी करते
उतना ही संकट गहरा हो जाता।
उनकी हालत दयनीय हो गयी जब
उनपर आरोप लगाया गया संगीन
कि उन्होंने महज सकरात्मकता का
चोला ओढ़ा हुआ है।
उन शब्दों को धमकाया भी गया कि
जल्द ही वे किसी पुरानी किताबों या
पीले दस्तावेजों में दफ़न हो जाएँ क्योंकि
देश अब जाग पड़ा है, नकली चोलों के दिन लद गए हैं।
सकारात्मक शब्दों की बैठक तो हुई,
पर कोई एक राय ना बन सकी,
किसी ने धीरज की रणनीति अपनाने को कहा,
किसी ने जनता की सनातन उदात्त चेतना पर विश्वास रखने को कहा
साहस शब्द ने संघर्ष पर उद्यत होने को कहा
आचरण की शुद्धता पर भी ध्यान गया जब किसी ने
नकारात्मक शब्दों के चोलों को बुनने की बात की।
बैठक नाकाम रही
सभी सकारात्मक शब्द अकेले पड़ गए और
देर-सबेर वे अलग-अलग शब्दकोशों में जाकर सुस्ताने लगे।
पर
नयी सरकार ने नए ज़माने के लोकतंत्र और नयी चेतना के अनुरूप
सभी शब्दकोशों के सभी पन्नों की नीचे की मार्जिन पर
यह डिस्क्लेमर लगाना राष्ट्रहित में अनिवार्य कर दिया था :
‘सावधान रहें, सचेत रहें, सकरात्मक रहें, शब्दार्थ चोले बदल रहें।’